प्राचीन भारत में भौतिकी

(Physics in Ancient India)

 

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स्थिति स्थापकता संस्कार

 

"ये घना निविडा अवयव सन्निवेशा:

तैर्विशिष्टेषु स्पर्शवत्सु द्रव्येषु वर्तमान:,

स्थितिस्थापक: स्वाश्रयमन्यथा कृतमवनामितं

यथावत्स्थापयति पूर्ववदृजु करोति।"

-प्रशस्तपाद, -भाष्य, न्यायकन्दली टीका,

 

स्थिति स्थापकता 1

तापमान के समान ही 'स्थितिस्थापकता' किसी पिण्ड विशेष के अणुओं की सन्निकटता एवं उनके मध्य लगने वाले आकर्षण बल के कारण होती है। जब कभी भी इन अणुओं की संरचना को विरूपण बल द्वारा विस्थापित किये जाने व उसके हटते ही अपने पूर्वोक्त गुण के कारण पिण्ड पुन: अपनी पूर्वावस्था को प्राप्त कर लेता है।

यदि किसी पिण्ड पर कोई बल लगाया जाय तो पिण्ड में एक प्रतिरोधी बल उत्पन्न होता है, जिसे प्रतिबल (stress) के नाम से जाना जाता है। जब कार्यरत बाह्य विरूपण बल विस्थापित होता है, तब यह प्रतिबल पिण्ड को उसकी पूर्व अवस्था में वापस ले आता है। पदार्थ में यह प्रतिबल उसके कणों के मध्य कार्यरत स्नेह कारक बल (cohesive force) प्रतिबल के कारण उत्पन्न होता है और इस प्रतिबल के कारण विकसित होने वाला गुण ही 'स्थितिस्थापकता' नाम से कहा जाता है।

वैशेषिक आचार्यों द्वारा निर्धारित 'स्थितिस्थापकता' की परिभाषा 2 भौतिक विज्ञान में प्रचलित प्रत्यास्थता (elasticity) से भिन्न प्रतीत नहीं होती है। इसके अतिरिक्त इसका भी विस्तृत अध्ययन संभव है जबकि इनके भी प्रयोग किये जायें, जैसे कि भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में होते हैं।

भौतिक विज्ञान में स्थितिस्थापकता के रैखिक (linear), आयतन (bulk), अपरूपण (shape) इत्यादि रूपों का अध्ययन किया जाता है। प्रकृत प्रसङ्ग में विभिन्न प्रकार की प्रत्यास्थताओं का विस्तृत अध्ययन को अनावश्यक समझते हुए, केवल रैखिक प्रत्यास्थता (linear elasticity) को अधोलिखित पद्धति से स्पष्ट किया गया है-

रैखिक स्थितिस्थापकता (Linear Elasticity)

यदि किसी धातु के तार के एक सिरे को कमरे की छत में स्थिर हुक से लटका कर, दूसरे सिरे पर भार (weight) लटकाया जाय तो यह परिलक्षित होता है कि विभिन्न चरणों में जैसे-जैसे हम भार मात्रा बढाते हैं तो तार की लम्बाई में वृद्धि होती है। और जब हम भार हटाते हैं तो तार पुन: अपनी पूर्वावस्था में आ जाता है। इस खिंचाव को एक सीमा तक ही बढाया जा सकता है। एक निश्चित परिसीमा के अनन्तर भार को विस्थापित करने के पश्चात् भी तार अपनी पूर्व अवस्था को प्राप्त नहीं होता है। भार की ऐसी सीमा प्रत्यास्थता सीमा (elastic limit) के नाम से जानी जाती है। और यदि इस सीमा का अतिक्रमण करते हुए भार में थोड़ी वृद्धि भी यदि करते हैं तो एक स्थिति ऐसी आती है जब तार विखण्डित हो जाता है।

उपर्युक्त प्रयोग में यह देखा जाता है कि प्रत्यास्थता सीमा के अन्तर्गत लम्बाई में वृद्धि खिंचाव बल (भार) के समानुपाती होती है, जो अवश्य ही पदार्थ में विकसित बल जिसे प्रत्यास्थ बल या स्थितिस्थापकता संस्कार ; मसेंजपब वितबमद्ध कहते हैं, के बराबर होनी चाहिए।

यह धारणा हुक के प्रत्यास्थता के नियम (Hook's law of elasticity) के समतुल्य है। 3 देखें चित्र सं. १२

 

चित्र सं. १२

 

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References

1

प्रशस्तपाद, -भाष्य, (६०० ई. पू.)

"स्थितिस्थापकस्तु स्पर्शवद् द्रव्येषु वर्तमानों घनावयव सन्निवेश विशिष्टेषु कालान्तरावस्थायिषु स्वाश्रमन्यथा कृतं यथावस्थितं स्थापयति"

प्रशस्तपाद, -भाष्य, न्यायकन्दली टीका,

"ये घना निविडा अवयव सन्निवेशा: तैर्विशिष्टेषु स्पर्शवत्सु द्रव्येषु वर्तमान:, स्थितिस्थापक: स्वाश्रयमन्यथा कृतमवनामितं यथावत्स्थापयति पूर्ववदृजु करोति।"

भट्टाचार्य,कारिकावली, गुणनिरूपणम्,

"स्थितिस्थापक संस्कार: क्षित केच्चितुर्ष्वपि। अतीन्द्रियो सो विज्ञेय: क्वचित् स्पन्देपि कारणम्।।१५९।।

मुक्तावली टीका,

"स्थितिस्थापकेति। अतीन्द्रिय इति। आकृष्टशाखादीनां परित्यागे पुनर्गमनस्य स्थिति स्थापक साध्यत्वात्। केचिदिति। चतुर्षु क्षित्यादिषु स्थितिस्थापकं के चिन्मन्यन्ते तद् प्रमाणमितिभाव:। असौ स्थितिस्थापक: क्वचिदाकृष्ट शाखादौ इति।"

2

C.J.L. Wagstaff, London (१९३४), Propertis of Matter, "Elasticity is a general name given to that property of a body in virtue of which it resists and recovers from change of shape or volume. All substances resist changes in volume, and so have what is termed bulk elasticity, but in only solids that have elasticity of shape;no fluid, liquid or gas can offer a permanent resistance to change of shape."

3

N.G. Dongre, प्रत्यास्थता (Elasticity) - Hindi Vishwakosh(VII);

 

 

 

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